अपने झूठ को छोड़कर जीवन को बदलने की विधि

सद्गुरु आज हमें एक विधि दे रहे हैं। वे कह रहे हैं—"वह जो भीतर झूठ बैठा हुआ है, उसको अगर हटाना है तो उन सब विषयों को जीवन से हटा दो, जिनको उस झूठ ने पकड़ा हुआ है, जिन पर वह झूठ सहारा लेकर, आश्रय लेकर खड़ा हुआ है।"

सद्गुरु कह रहे हैं—"जो कुछ भी तुम्हारे मन में है, जब तक वह रहेगा, तब तक तुम भी वही रहोगे जो तुम हो। जो कुछ तुम्हारे मन में है, माने विषय, जब तक तुम्हारे मन के विषय वही हैं जो आज हैं, तब तक तुम भी वही रहोगे जो आज हो। जब तक मन की सामग्री नहीं जाएगी, तब तक तुम भी नहीं जाओगे।"

चलो, जाना थोड़ा खौफ की बात लग जाती है। हमें नहीं जाना! अभी सद्गुरु जब देखो तब विदाई ही लगाते रहते हैं। आते हैं और खट से बोलते हैं—"जाओ!"
हमें जाना होता, तो आए काहे को होते? अब आए हैं तो... अच्छा, ठीक है। मत बोलो कि "तुम तभी जाओगे जब मन की सामग्री जाएगी।" ऐसे लिख लो—"जब तक मन की सामग्री नहीं बदलेगी, तब तक तुम भी नहीं बदलोगे।"

बदलना तो ठीक है ना? जाने को नहीं कह रहे, बुरा मत मानो।

तो तुम कौन हो फिर?
तुम तुम्हारे मन की सामग्री हो।

जो स्वयं को बदलना चाहते हैं, वे सब भुला दें, जो उनके मन में है।
मन में जो कुछ है, उसे पकड़कर बैठे हो, कुछ नहीं बदलेगा। "मैं" वैसा ही रह जाएगा, जैसा "मैं" का विषय है। "मैं" वैसा ही रह जाएगा, lजैसा मन का विषय है।

आ रही बात समझ?

बहुत सारे लोग होते हैं, तमाम तरह के प्रयास करते हैं, साधना करते हैं। वे कहते हैं—"जीवन बदल नहीं रहा!"
जीवन इसलिए नहीं बदल रहा, क्योंकि जीवन की सामग्री नहीं बदल रही। मन के विषय नहीं बदल रहे।
आप अगर उन्हीं बातों को महत्व दे रहे हो, जिनको हमेशा से दिया, तो आप वही रह गए, जो हमेशा से हो।

आपको वही सब याद है, उन्हीं स्मृतियों को पकड़कर बैठे हो, जो स्मृतियाँ आप पाँच साल से पकड़े हुए हो। तो आप बिल्कुल वही रह जाओगे, जो आपको रहना है।

कितने लोग वही रह जाना चाहते हैं, जो आज हैं?
कितने लोगों को लगता है कि बदलना और बेहतर होना जरूरी है?

हाथ उठा दो ईमानदारी से।

जिन्हें बदलना और बेहतर होना हो, वे अपनी स्मृतियाँ भुलाएँ।
और याद रखना—स्मृति कोई पत्थर पर खिंची लकीर नहीं होती कि अब हम इसे कैसे हटाएँ!

मन में स्मृति प्रयास से बाँधी जाती है।
वह प्रयास हटा दो, स्मृति हट जाती है।

हम बहुत बार पूछ चुके हैं आपसे—"क्या आपको सब कुछ याद रहता है?"

आपको बस वही याद रहता है, जिसे याद रखने का आप या तो प्रयास करते हैं चैतन्य रूप से, या जिसके याद रखने में आपका स्वार्थ है।

अचेतन कुछ भी यूँ ही याद नहीं रह जाता।
याद अगर कुछ है, तो उसके पीछे अहं का कोई कारण है।

जो कुछ भी आपको याद है, वही आपको वह बनाए हुए है, जो आप आज हो।


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याद माने विषय।
याद माने विषय।

कोई चीज़ आपके घर में होने से विषय नहीं हो जाती।
कोई चीज़ विषय तब बनती है, जब वह आपके मन में होती है।
घर में होने से कुछ विषय नहीं हो जाता।
और मन में है, माने स्मृति

तो याद रखो—
"तुम्हारा पूरा व्यक्तित्व तुम्हारी स्मृति मात्र है।"

जो तुम्हें याद है, वही तुम हो। जो तुम याद रखे हुए हो, तुम वही हो

अब याद का हमने वह पक्ष लिया, जो थोड़ा जड़ है।

याद से हम यूँ दर्शा रहे हैं, जैसे आशय मात्र विषयों का है।
पर याद हमें सिर्फ विषय नहीं होते, हमें विषयों के बारे में भी बहुत कुछ याद होता है।

एक तो यह है कि—"यह मेरे पास है, यह मुझे याद है।"
दूसरा यह कि—"यह मेरे पास है, यह मुझे याद है, कितने रुपए का था, किसने दिया था, कब दिया था, कितनी बार गिरा, इस तरह के और कितने मग पूरे भारतवर्ष में पाए जाते हैं, यह जो हरा रंग है, यह किस राजनैतिक पार्टी के झंडे का रंग है।"

मात्र विषय नहीं याद होता, हमें विषयों से संबंधित बहुत कुछ याद होता है

उसे ज्ञान बोलते हैं—सामान्य ज्ञान

सद्गुरु कह रहे हैं—"भुलाओ ज्ञान!"
"भुलाओ अपना ज्ञान भी!"

अपनी स्मृति को हटा दो, क्योंकि ज्ञान भी स्मृति मात्र है

स्मृति न हो, तो क्या ज्ञान बचेगा?
आपकी स्मृति चली जाए, तो क्या आपका ज्ञान बचेगा?

अब सद्गुरु कह रहे हैं—"तुमने जो विषय पकड़े हैं, और विषयों के बारे में जो पकड़ा हुआ है, वही तुम्हारा रुग्ण व्यक्तित्व बनाए हुए हैं।"

तुम्हारा व्यक्तित्व ऐसे ही रह जाएगा—छोटे से, संकुचित से, डरे हुए, बात-बात में गिरते-पड़ते

अगर अपना अतीत वही रखोगे, जो तुम्हारा आज तक रहा है—
तो अतीत बदलो!

अतीत को बदलो!
अतीत कैसे बदला जाता है?

अतीत में जाकर, टाइम ट्रेवल से?
नहीं!

अतीत को भुलाकर!

आ रही बात समझ?

ऋषि वह है, जो भूलने में तुम्हारी मदद करता है

जो तुम अपना ज्ञान समझते हो, उसे भी भुला देता है।
और ऋषि वह है, जो भुलाने में तुम्हारी मदद करता है, जिसे तुम अपनी कामना कहते हो।

ज्ञान और कामना—इन दोनों से मुक्ति ही स्वयं से मुक्ति है

ज्ञान माने जो है, कामना माने जो चाहिए।

"मैं" का कोई अपना, निजी, पृथक, स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता।
जो तुम्हारी स्मृति है, जो तुम्हारा ज्ञान है, जो तुम्हारी कामना है—वही "मैं" है

जिसे अपने "मैं" से मुक्ति चाहिए, वह अपनी स्मृति, अपने ज्ञान, अपनी कामना को खारिज कर दे।

सद्गुरु मदद कैसे करता है भुलाने में?

यह दिखाकर कि यह सब कुछ जो तुमने पकड़ रखा है, किसी बहुत भद्दे मतलब से पकड़ रखा है।

"यह सब तुमने इसलिए नहीं पकड़ा कि इसमें तुम्हारा हित है।"
"यह सब तुमने इसलिए पकड़ा है ताकि तुम्हारा झूठ कायम रहे।"

यह सब कुछ तुमने एक बीमारी की तरह पकड़ रखा है—छोड़ दो इसे!

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